Nowruz

  Nowruz बहार का त्योहार - Nowruz                   सूरज की किरणों ने आसमान को चुम लिया, और आकाश में रंग भर दिया। प्रकृति ने अपनी नई सजावट के साथ अपनी दुलार बाँटी। और हम एक नए आरंभ की ओर बढ़ रहे हैं। यही है Nowruz का त्योहार - नया जीवन, नई उम्मीदें, और नई खुशियाँ।                Nowruz जिसे 'नव वर्ष' के रूप में भी जाना जाता है, परंपरागत रूप से फारसी और ईरानी समुदायों में मनाया जाता है। यह पर्सियन कैलेंडर के पहले दिन को चिह्नित करता है और साल का आरंभ करता है। नवरूज़ का महत्व विविधता, समृद्धि, और उत्साह का प्रतीक है।               इस त्योहार को मनाने के लिए लोग एक अद्वितीय परंपरागत प्रक्रिया अनुसरण करते हैं। इसमें रंग-बिरंगे कपड़े पहनना, मिठाईयों का सेवन करना, और परिवार और दोस्तों के साथ मनाना शामिल है।              Nowruz का मुख्य चिन्ह उन्मुक्ति और नई शुरुआत का प्रतीक है। इस दिन लोग अपने घरों को सजाते हैं, खासकर खुदरा रंगों से चित्रित करते हैं, और नए कपड़े पहनते हैं। इस त्योहार के दौरान, लोग अपने प्यारे व्यक्तियों को तोहफे देते हैं और उन्हें शुभकामनाएं देते हैं।                

मध्यप्रदेश का इतिहास

मध्यप्रदेश का इतिहास

गुप्त वंश

मगध जनपद बौध्द काल तथा उत्तर भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद था। मगध देश में वैभवहीन छोटे −मोटे राजा ही रह गये थे। इनमें से एक राजा चन्द्रगुप्त प्रथम का विवाह नेपाल के लिच्छवि वंश में हो गया था।लिच्छवि वंश में विवाह हो जाने से, उनका गौरव बहुत बढ़ गया, क्याेंकि वह वंश बहुत प्राचीन , प्रतापी और प्रभावशाली था। लिच्छवियों से उसे प्राचीन वैभवशाली राजधानी पाटलिपुत्र प्राप्त हो गई। तब तो चंद्रगुप्त प्रथम ने अवसर पाकर अपना महत्व इतना बढ़ाया की शीघ्र  ही उसने अपने आपको महाराजाधिराज के  विरूध्द घोषित कर दिया और गुप्त नामक वंश का प्रचार सन् 320 ई में कर दिया।

एरणः− एरण जो  कि मध्यप्रदेश के सागर  जिले में विदिशा के निकट बेतवा नदी के  किनारे स्थित है। वहां से एक अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो 510 ई का है। इसे भानुगुप्त का अभिलेख कहते हैं। 




स्वभोग नगर एरणः−    

चंद्रगुप्त प्रथम का पुत्र समुद्रगुप्त हुआ,  जिसने अपने पिता की तरह अपने राज्य को चहुंओर फैलाने का प्रसार किया और अनेक राजाओं को परास्त कर उन्हें मांडलिक बना दिया। जब वह दिग्विजय को निकला तो सागर जिले से ही होकर दक्षिण को गया। जान पड़ता है  िक उसे बहुत प्रिय लगा, क्योंकि उसने बीना नदी के किनारे एरण में ” स्वभोग नगर” बसाया, जिसके खण्डहर वर्तमान में भी मौजूद है। एरण में एक शिलालेख मिला है उसी में इस बात का उल्लेख पाया गया है। यह पत्थर विष्णु के मंदिर में लगवाया गया था। समुद्रगुप्त की दिग्विजय की प्रशस्ति इलाहाबाद की लाट में खुदी है, जिसमें अनेक जातियों और राजाओं के नाम लिखे हैं, जिन्हें जीतकर उसने अपने वश में कर लिया अथवा विध्वंश कर डाला था। उसमें से एक जाति खर्परिक है जो दमोह या उसके आस−पास के जिलों में अवश्य रही होगी। उस जिले के बटियागढ़ नामक स्थान में  14वीं शताब्दी में एक  शिलालेख मिला है जिसमें खर्पर सेना का उल्लेख है। ये प्राचीन खर्परिक से भिन्न नहीं हो सकते , ये बडे़ लड़ाकू जान पड़ते हैं क्योंकि इनको सैनिक बनाकर रखना मुसलमानों तक को भी अभीष्ट था, इसी कारण महमूद सुल्तान की ओर से इन लोगों की सेना बटियागढ़ में रहने लगी  थी। पीछे से लड़ाई  पेशावाली जातियों की जो गति हुई वह इनकी भी हुई। अब इन लोगों की एक अलग जाति खपरिया नाम की हो गई है जो बुन्देलखण्ड में  विशेष रूप से पायी जाती है। समुद्रगुप्त ने महाकौशल के राजा महेंद्र से लड़ाई ली और उसे हरा दिया। इसी प्रकार महाकांतर के राजा व्याघ्रदेव को भी हराया। यह कदाचित बस्तर का कोई भाग रहा होगा जहां पर इस समय भी बड़ा भारी जंगल है। इलाहाबाद की प्रशस्ति में आटविक (जंगली) राज्यों के जीतने का भी जिक्र है। जान पड़ता है  कि प्राचीन काल से अष्टादश अटवी राज्य अर्थात् अठारह वनराज्य प्रसिध्द थे। इनके पड़ोसी उच्चकल्प के महाराजा थे जो उचहरा में राज्य करते थे। उच्चकल्प का ही अपभ्रंश उचहरा जान पड़ता है। इनकी वंशावली ओंघदेव  से आरंभ होती है जिसका विवाह कुमारदेवी से हुआ था।  इनका पुत्र कुमारदेव हुआ जिसने जयस्वामिनी से विवाह किया तथा इनका पुत्र जयस्वामिन् हुआ । तथा इनका लड़का सर्वनाथ  हुआ  जिसका राज्यकाल 449 ई0 के लगभग जान पड़ता है। इसके बाद इसने अश्वमेघ यज्ञ  किया जो पुष्यमित्र के समय से बीच में कभी नहीं हुआ था। मौर्यवंश में चंद्रगुप्त का पोता अशोक और गुप्तवंश में चंद्रगुप्त का लड़का समुद्रगुप्त दोनों तेजस्वी निकले । समुद्रगुप्त भारतीय नेपोलियन कहलाता था। यद्यपि कोई उसे सिकंदर की उपमा देते हैं जिससे यह अर्थ निकलता  है कि उसकी विजय चिरस्थायी नहीं थी। अन्ततः यह तो मानना पड़ेगा कि दिग्विजय में वह अद्वितीय हो गया था,  उसी प्रकार धर्मप्रचार में अशाेक से बढ़कर दूसरा कोई नहीं हुआ। समुद्रगुप्त केवल वीर ही नहीं था, वरन् वह योध्दा, कवि और उच्च श्रेणी का गायक भी था।

समुद्रगुप्त का देहांत 375 ई0 के लगभग हुआ। तब उसका लड़का चंद्रगुप्त द्वितीय सिंहासान पर बैठा । इसके समय में प्रजा बड़ी सुखी थी। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य कहलाता था, और कहा जाता है कि भारत के देशी राजाओं में को ऐसा नहीं हुआ जिसका शासन इसके शासन से बढ़कर रहा हो। इसकी पुष्टि चीनी −यात्री फाहियान के समान विद्वान विदेशी भी करते हैं। प्रजावर्ग में अतुलित शांति और समृध्दि थी। इसके शिलालेख भिलसा के पास उदयगिरी और सांची में विद्यमान हैं।

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