गोंड जनजाति की परंपराएं और जीवनशैली

चित्र
 गोंड जनजाति की परंपराएं और जीवनशैली परिचय "गोंड जनजाति की पारंपरिक चित्रकला" गोंड जनजाति भारत की सबसे प्राचीन और विशाल जनजातियों में से एक है, जो मुख्यतः मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में निवास करती है। गोंड शब्द 'कोंड' से बना है, जिसका अर्थ होता है 'पहाड़ी लोग'। 🏠 रहन-सहन और निवास गोंड समुदाय आमतौर पर गांवों में समूहबद्ध होकर रहते हैं। उनके घर मिट्टी और बांस की सहायता से बनाए जाते हैं और छतें पुआल की होती हैं। दीवारों को 'दिगना' नामक परंपरागत चित्रों से सजाया जाता है। 🍲 भोजन और खान-पान गोंड जनजाति का खान-पान पूरी तरह प्रकृति पर आधारित होता है। वे मक्का, कोदो, कुटकी और महुआ का उपयोग अधिक करते हैं। महुआ से बनी शराब उनके सामाजिक उत्सवों का अहम हिस्सा है। 💍 विवाह और परंपराएं गोंड समाज में विवाह एक सामाजिक आयोजन होता है। दहेज प्रथा नहीं के बराबर होती है। विवाह से पूर्व लड़का-लड़की एक-दूसरे को पसंद कर सकते हैं। विवाह गीत, नृत्य और पारंपरिक वस्त्र पूरे समारोह को रंगीन बना देते हैं। 🎨 कला और संस्कृति गोंड चित्रकला ...

बुन्‍देलखण्‍ड का पहला परमार शासक और उसका कार्यकाल

पुन्‍यपाल परमार और बुन्‍देलखण्‍ड


  

पुन्‍यपाल परमार का नाम पवाया के शासक के रूप में बुन्‍देलखण्‍ड के इतिहास में तेरहवीं सदी के मध्‍य में मिलता है। कहीं-कहीं पुन्‍यपाल परमार को 'प्रनपाल परमार' भी लिखा गया है। यह पवाया प्राचीन इतिहास की सुप्रसिध्‍द नगरी पदमावती है। यहां प्रथम शताब्‍दी से चौथी शताब्‍दी तक नागों का राज्‍य रहा था। पदमावती के संबंध में प्राचीनतम उल्‍लेख विष्‍णुपुराण में भी मिलता  है। सातवीं सदी की कृति बाणभट्ट के हर्षचरित में भी पदमावती का उल्‍लेख मिलता है। 
                                                         इसी क्रम में संस्कृत कवि - नाटककार भवभूति ने अपने नाटक ' मालती माधव' में भी इस नगर के गौरव का उल्‍लेख किया है। ग्‍यारहवीं सदी की कृति 'सरस्‍वती कंठाभरण' परमार राजा 'भोज कृत' में भी पदमावती का उल्‍लेख आया है, यहां कभी विश्‍वविद्यालय भी था। और देशक के सुदूर भागों से यहां विद्वान एवं छात्र अपनी ज्ञान पिपासा शांत करने हेतु आते थे। यह स्‍‍थान वर्तमान में ग्‍वालियर जिले के भितरवार तहसील से पूर्व की ओर दस-बारह किलोमीटर दूर सिंध और पारवती के संगम पर स्थित है। 
                            
                                 सिंध और पारवती नदी के त्रिकोण में तीन ओर से सुरक्षित यह स्‍थान उत्‍तर- पश्चिम की ओर स्‍थानीय नाले करार से घिरा हुआ था। उल्‍लेखनीय है क‍ि 'करार' शब्‍द महुअर-सिंध तलहटी क्षेत्र में बहुत प्रचलित है। इसका अर्थ नदी के किनारे के रूप में  माना जाता है। यहां इस विषय पर विचार करना आवश्‍यक है कि इस स्‍थान का नाम 'पदमावती' से पवाया कैसे प्रचलित हो गया। एक तो यह पदमावती संस्‍कृत मि‍श्रित क्लिष्‍ट नाम है, जो आसानी से आम ग्राम बोली में आदमी की जवान पर सीधे-सीधे नहीं चढता है।  और पवाया गेय शब्‍द है व यह शब्‍द स्‍थानीय बोली में आसानी से बोला जा सकता है तथा तीसरे पवाया शब्‍द से पवित्र स्‍थान का बोध होती है। 
उल्‍लेखनीय है क‍ि ओरछा के शासक वीरसिंह बुन्‍देला ने सत्रहवीं सदी के प्रारंभ में पदमावती क्षेत्र में , पदमावती से तीन किलोमीटर पहले एक सुरम्‍य पहाडी भाग में, जहां सिंध नदी की धार आकर्षक जल प्रपात बनाती है, एक शिव मंदिर बनवाया  था। और इस स्‍थान के जलप्रपात में जल वेग से गिरने के कारण धुएं के रूप में  दिखाई देता था। इसलिए इस स्‍थान का नाम धूमेश्‍वर पवाया अर्थात जलधुएं से युक्‍त पवित्र स्‍थान पडा और प्रसिध्‍द हुआ। क्‍योंकि तेरहवीं सदी के मध्‍य से लगभग सौ- डेढ सौ साल तक इस स्‍थान पर परमार ठाकुरों का राज्‍य रहा था, अत: यह संभावना अधिक बलवती है कि यहां पूर्व से ही भगवान शंकर का स्‍थान रहा होगा, जिसे बाद में दिल्‍ली सल्‍तनत के मुस्लिम आक्रांताओं ने नष्‍ट कर दिया होगा। और वीरसिंह ने ओरछा के शक्तिशाली शासक के रूप में पवाया पर पुन: अधिकार स्‍थापित कर यहां भगवान शंकर का भव्‍य मंदिर बनवा दिया था। पवाया के परमार शासक शिव भक्‍त थे और उन्‍होंने नदी के मध्‍य में पवाया के समीप एक शिवलिंंग की स्‍थापना भी की थी तथा अपने कार्यकाल  में राज्‍य क्षेत्र में अनेक शिव मंदिर बनवाए थे। बुन्‍देलखण्‍ड के परमारों की एक वंशावली उपलब्‍ध हुई है, जिसमें पुन्‍यपाल को पवाया शासक बताया गया है। 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

Thanks for reading...

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

NOWGONG CHHATARPUR ( History of Nowgong)

जिला छतरपुर के किले एवं गढियां

संत सिंगा जी महाराज