पश्चिमी जनजातीय प्रदेश के उत्सव
त्यौहार में जहां हमें अपनी प्राचीन सांंस्क़तिक मान्यताओं, आस्थाओं तथा परंपराओं के दर्शन होते हैै वहीं निरंतर एक ही प्रकार की दिनचर्या की उकताहट काेे दूर कर ये त्यौहार जीवन में नूतन उत्साह और उमंग भरते है । त्यौहारों के मांगलिक स्वरूप और महत्व को शिक्षित एवं सुख-सुविधा सम्पन्न वर्गों की तुलना में गरीब, पिछडे और अनपढ् कहे जाने वाले आदिवासी कहीं अधिक अच्छी तरह समझते हैै । कठिनाइयों तथा असीम अभावों के बावजूद भी वे अपने त्यौहारों को उल्लासपूर्वक मनातेे हैं।
ग्रीष्म
मार्च ( फाल्गुन-चैत)
भगोरिया
मध्यप्रदेश के दक्षिण -पश्चिम भोले अंचल झाबुआ का भगोरिया पर्व प्रख्यात है। फागुन के मदमस्त मौसम में होली के पूर्व सप्ताह में अलग-अलग तिथियों में हाट-बाजार की शक्ल में मनाया जाता है। भील समुदाय की हर शाखा इसे पारम्परिक बाघ-ढाेेेल, मांदल के संग बडी् धूमधाम से मनाते हैैं ।
इस त्यौहार पर कहीं छलछलाती आदिम मस्ती दर्शनीय होती है। वैसेे यह त्यौहार सर्वत्र केवल एक दिन के लिए ही होता है। सम्पूर्ण अंचल में केवल कटठीवाडा ही इसका अपवाद है, जहां पर भगोरिया तीन दिन तक चलता है। सुबह से ही आस पास के गांवों से आदिवासी जन थिरकते हुए आने लगतेे हैैं, जिधर निगाहें जाती हैं उधर ही ढोल मांदल के उपर भीली लोक गीतों की लहर और घुंघरूओं की रूनझुुुन जगह-जगह वन खण्डों को मुखर करने लगती है। जहां भीली स्त्री पुरूष अपने पारम्परिक परिरधानों मे विविध रूपेध अभिसार किए राहों पर पगडंडियों पर संवेर मिलते हैं। त्रिदिवसीय भगोरिया मेला लाेेेकगीत व लोक संगीत के माहौल में सरोवर रहता है।
आदिवासी अंचल झाबुआ के विभिन्न हिस्सों में निर्धािरित दिनों में लगने वाले बाजार जिन्हें भगोरिया हाट कहा जाता है। यह हाट केवल हाट न होकर भील-भीलाला समाज के तरूण युवक-युवितियों के मिलन के मेेेेले हैै, अपितु प्रणय पर्व के रूप में भी इनकी महत्ता रहती है। यहीं से युवक-युवतियां एक-दूसरे के संपर्क में आते हैैं, आकर्षित होते हैै और जीवन सूत्र में बंधने के लिए भाग जाते हैं। अर्थात स्वतंत्र रूप से जीवन साथी चुनने का अवसर इन हाट के माध्यम से किया जाता है और अपहरण विवाह को अंजाम दे देते हैैं। एक परम्परा के बतौर इन्हीं कृत्यों के कारण हाट का नाम भगोरिया हाट कहा जाता है।
विभिन्न गांवों से आई आदिवासी टोलियोंं में सजी धजी युवतियों का श्र्ंगार और युवकाेेंं के हाथ में तीर कमान लिए नाचना उनकी परम्परा का प्रतीक है। इस प्रकार ये टोलियां सुबह नौ-दस बजे तक गांव में आ पहुंचती हैै जहां मुख्य बाजार पहले से ही लगा रहता है। झूले चकरी, चाय, शक्कर के हार, खजूर, खोपरा मजाम। एक प्रकार की शक्कर रंग बिरंगी मिठाई । सेव, भिजिए, गुलाल आदि की बिक्री की दुकानें। दोपहर तक मुख्य बाजार खचाखच भर जाता है। जहां भिन्न- भिन्न राहों से थिरकती गाती टोलियों के रंगों व स्वरों का एक अनुपम संगम दृष्टिगत होने लगता है। जहां मांदल की थाम पर युवक-युवतियांं ताड़ी के सरूर में आदिम किलकारियों के मध्य मस्ती से नाचते हैं गाते हैं। इस प्रकार एक अनूठा और अद्वितीय रंगारंग माहौल यत्र-तत्र उभर आता हैैै।
शाम को भील स्त्री पुरूषाेें की टोलियां पुन: धीरे-धीरे गाती थिरकती संगीत स्वरों सहित अपनी राहों पर लौटने लगती है। झाबुआ ,धार, खरगौन के अतिरिक्त भगोरिया का विस्तृत स्वरूप अलीराजपुर में देखने को मिलता है। यहां होली के त्यौहार तीन भागों में विभक्त रहते हैं। जैसे- तेवरिया, भगोरिया, उजाडि्या , होंर भगोरिया सप्ताह के प्रारंभ के एक हफ्ते पहले वाले हाटें तेवरिया हाट कहलाती हैं। यह भगोरिया के पूर्व तैयारी की हाटें होती है जिसमें आदिवासी परिवार अपने बकरे, मुर्गे, अनाज आदि सामग्री बेचने व अपने त्यौहार संबंधी वस्तुऐं खरीदने केे लिए हाटों में आते हैं। युवक-युवतियां मांदल की ताल, बांसुरी के स्वर और ताडी् के रसरंग में गाते थिरकते भगोरिया का आनंद लेते हाट में घूमते हैं।
होली के दिन भगोरिया समाप्त होने पर उजाडियां हाटों की शुरूआत हो जाती है। जो अगले सात दिनों तक चलती हैं इस अवधि में हाट बाजार सूने रहते हैं आदिवासी अपने-अपने ग्राम क्षेत्रों से गुजरने वाले मार्गो पर अवरोध खडे करके वाहन आदि को रोक कर पैसे वसूलते है।
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