भील जनजाति

  भील जनजाति भील जनजाति भारत की प्रमुख आदिवासी जनजातियों में से एक है। ये जनजाति मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, अंध्र प्रदेश और कर्नाटक राज्यों में निवास करती है। भील जनजाति की अपनी विशेष सांस्कृतिक विरासत और परंपराएं हैं, जो उन्हें अन्य जनजातियों से अलग बनाती हैं। भील लोगों की जीवनशैली मुख्य रूप से गांवों में आधारित है। उनका प्रमुख व्यवसाय कृषि है, लेकिन वे धान, गेहूं, जोवार, बाजरा, राजमा, और तिलहन जैसी फसलों की खेती करते हैं। इसके अलावा, उनका आर्थिक स्रोत है चिड़िया पकड़ना, जंगल से लकड़ी की खाद्य सामग्री तथा वन्यजीवों का शिकार करना। भील जनजाति की सामाजिक संरचना मुख्य रूप से समाजवादी है, जिसमें समानता और सामाजिक न्याय को प्राथमिकता दी जाती है। इसके अलावा, भील समुदाय में सांस्कृतिक गाने, नृत्य, और रंगमंच कला की अमूल्य धरोहर है। हालांकि, भील जनजाति के लोगों को अपनी शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में सुधार की जरूरत है। सरकार को उनके विकास के लिए उपयुक्त योजनाओं की शुरुआत करनी चाहिए ताकी भील समुदाय के लोगों को समृद्धि और समानता का मार्ग प्र सशस्‍त ह

चेला तुंबी भरके लाना

 चेला तुंबी  भरके लानाः−



प्राचीन गुरु परंपरा का ये प्रचलित गीत ... कहता बहुत कुछ .. 

जानिये क्या है ये सीख.....


चेला भिक्षा लेके आना गुरु ने मंगाई,

1. पहली भिक्षा  जल की लाना......कुआँ बावड़ी छोड़ के लाना,

नदी नाले के पास न जाना  तुंबी भरके लाना।


2. दूजी भिक्षा  अन्न की लाना  गाँव नगर के पास न जाना,

खेत खलिहान को छोड़के लाना, लाना तुंबी भरके लाना,

तेरे गुरु ने मंगाई है।


3. तीजी भिक्षा  लकड़ी लाना... डांग-पहाड़ के पास न जाना,

गीली सूखी छोड़ के लाना-लाना गठरी बनाके लाना।

तेरे गुरु ने मंगाई ।


4. चौथी भिक्षा  मांस की लाना... जीव जंतु के पास न जाना,,

जिंदा मुर्दा छोड़ के लाना...लाना हंडी भरके लाना 

तेरे गुरु ने मंगाई.....चेला तुंबी भरके लाना....

कुछ वर्ष पहले गाँव के लोगों से बिल्कुल देशी धुन में एक गीत सुना रात को।गुरु चेले की परीक्षा ले रहे हैं। चार चीजें मंगा रहे हैं :जल, अन्न,लकड़ी, मांस।

लेकिन शर्तें भी लगा दी हैं।अब देखना ये है कि चेला लेकर आता है या नहीं, इसी परीक्षा पर उसकी परख होनी है।


जल लाना है, लेकिन बारिश का भी न हो, कुएं बावड़ी तालाब का भी न हो।अब हममें से कोई नल मत कह देना या मटका या आरओ कह बैठो। सीधा मतलब किसी दृष्ट स्त्रोत का जल न हो।

अन्न भी ऐसा ही लाना है किसी खेत खलिहान से न लाना, गाँव नगर आदि से भी भिक्षा नहीं मांगनी।


लकड़ी भी मंगा रहे हैं तो जंगल पहाड़ को छुड़वा रहे हैं, गीली भी न हो सूखी भी न हो, और बिखरी हुई भी न हो, यानी बन्धी बंधाई कसी कसाई हो।


मांस भी मंगा रहे हैं तो जीव जंतु से दूरी बनाने को कह रहे हैं और जिंदा मुर्दा का भी नहीं होना चाहिए।


अगर मैं चेला होता तो फेल हो जाता परीक्षा में, लेकिन यह प्राचीन भारत के  गुरुओं द्वारा तपाकर पकाकर तैयार किया गया शिष्य है।आजकल के पढ़े लिखों से लाख बेहतर है।


गीत समाप्त हो जाता है लेकिन रहस्य  बना रहता है। आज एक बुजुर्ग से पूछा तो खूब हंसे। कहने लगे--अरे भगवन क्यों मज़ाक करते हो आपको तो सब पता है। मेरी बालकों जैसी मनुहार पर रीझकर धीरे से बताते हैं-- नारियल


देखो पहले बर्तन नहीं रखते थे सन्त सन्यासी,  लौकी होती है एक गोल तरह की, उसे तुम्बा कहते हैं । वही पात्र रखते थे पहले तो उसको भरके लाने की कह रहे हैं।


अब नारियल को देखो, जल भी है इसमें और कुएं बावड़ी नदी झरने का भी नहीं है, अन्न भी है इसमें... अद्द्यते इति अन्नम.....जो खाया जाए वह अन्न है, लेकिन खेत खलिहान गाँव शहर का भी नहीं है।

तीसरी चीज लकड़ी भी है ऊपर खोल पर, अंदर गीला भी है, बाहर सूखा भी है और एकदम बंधा हुआ भी है कसकर।

अंतिम में कहते हैं मांस भी लाना.....यानी कोई   गूदेदार फल। इस मांस शब्द के कारण शास्त्रों के अर्थों के खूब अनर्थ हुए हैं बालबुद्धि लोगों द्वारा। आयुर्वेद में एक जगह प्रसंग है कि फलानी बीमारी में कुमारी का मांस बहुत फायदेमंद है, तीन महीने तक सेवन करें।


आज़कल के बुद्धिजीवी यानी  बिनाबुद्धि के लोग कह देंगे कि देखो कैसे कुंवारी लड़कियों के मांस खाने का विधान है शास्त्रों में। जबकि कुमारी से वहां  घृतकुमारी यानी ग्वारपाठा यानी एलोवेरा के गूदे को कहा गया है। हर गूदेदार फल को मांस कहा गया है। यदा कदा तो गुरु भी यही मंगा रहे हैं कोई गूदेदार फल।


चेला नारियल लेकर आता है और गुरु का प्रसाद पाता है आशीर्वाद रूप में। कितना रहस्य छुपा हुआ है पुरानी कहावतों एवं लोकगीतों में।  बुजुर्गों के पास बैठकर यह सब सुनना चाहिए इससे पहले की यह अंतिम पवित्र पीढ़ी इस दुनिया को अलविदा कहे।


चेला तुंबी भरके लाना।


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