पॉज़िटिव और नेगेटिव इमोशन्स
क्या हमें इन दोनों इमोशन्स की ही ज़रूरत है?
अक्सर हम सकारात्मकता यानी पॉज़िटिविटी का मतलब पॉज़िटिव इमोशन समझ लेते हैं.। जब भी किसी ख़ुशहाल व्यक्ति की कल्पना की जाती है हम यह मानकर चलते हैं कि उसके अंदर पॉज़िटिव इमोशन्स कूट-कूटकर भरे गए होंगे। बल्कि हम यह भूल जाते हैं कि इंसान पॉज़िटिव और नेगेटिव इमोशन्स यानी सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं को उचित मात्रा में मिलाकर बनाया हुआ एक प्राणी है। जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह इंसान की भावनाओं के भी दो पक्ष हैं, सकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक भावनाओं की तरह ही नकारात्मक भावनाएं भी जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। दरअसल हम कह सकते हैं कि नकारात्मक भावनाएं ही हैं, जो हमें सकारात्मक भावनाओं के महत्व को समझाने में मदद करती हैं। तो फिर हम इन दोनों भावनाओं के महत्व और इनका हमारे जीवन में उपयोगिता के बारे में समझते हैं -
पॉज़िटिव और नेगेटिव इमोशन्स क्या हैं ?
वह सोच या भावनाएं, जो हमें आमतौर पर अपने आप को अच्छा महसूस कराती हैं, उन्हें हम पॉज़िटिव इमोशन कह सकते हैं। ये भावनाएं हमारे आसपास के सुखद माहौल के चलते उपजती हैं या विषम परिस्थितियों में ख़ुद से की जानेवाली हमारी अंदरूनी बातचीत के फलस्वरूप पैदा होती हैं। कुछ सामान्य सकारात्मक भावनाएं हैं: प्रेम, आनंद, संतुष्टि, रुचि, ख़ुशी, शांति, गर्व, संवेदना, उम्मीद आदि.
वहीं दूसरी ओर, नेगेटिव इमोशन्स वो हैं जो हमें आमतौर पर अच्छा नहीं महसूस कराती हैं।नकारात्मक भावनाओं को अप्रिय या दुख की भावना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। साथ ही यदि कोई भावना आपको हतोत्साहित और निराश करती है, तो वह एक नकारात्मक भावना ही है। सबसे अधिक महसूस की जाने वाली कुछ नकारात्मक भावनाएं हैं: डर, ग़ुस्सा, नफ़रत, उदासी, क्रोध, पछतावा, शर्म, अकेलापन, चिढ़ आदि.
क्या हमें नकारात्मक भावनाओं की भी उतनी ही ज़रूरत होती है, जितनी सकारात्मक भावनाओं की ?
अगर इंसान को अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने का खुद पर बस चले तो शायद ही कोई इंंसान अपने आप में नकारात्मक भावना पैदा होने दे । क्योंकि सकारात्मक भावनाएं सुखद होती हैं. शायद ही कोई हो, जो नकारात्मक भावनाओं को चुनना चाहेगा। पर इंसान के संपूर्ण विकास के लिए दोनों भावनाओं का होना ज़रूरी है, प्रकृति इस बात को हमसे बेहतर जानती है इसलिए उसने भावनाओं का नियंत्रण हमें कभी दिया ही नहीं।
बेशक नेगेटिव इमोशन्स अनुभव करने के लिहाज़ से सुखद नहीं होते हैं, पर नकारात्मक भावनाएं वास्तव में स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक हैं. ऐसा होने के दो बड़े कारण हैं. पहला कारण: वह नकारात्मक भावनाएं ही हैं, जो हमें बताती हैं कि सकारात्मक भावनाएं क्या होती हैं. उनका क्या महत्व है. सोचिए, अगर नकारात्मक भावनाएं न हों तो सकारात्मक भावनाएं अच्छी लगेंगी? दूसरा और महत्वपूर्ण कारण यह है कि नकारात्मक भावनाएं हमें अपनी जीवनशैली में उन तरीक़ों को शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, जो हमारे जीवित रहने की संभावनाओं को बढ़ाती हैं. उदाहरण के लिए क्रोध समस्याओं से लड़ने के लिए हमें प्रेरित करता है. दुख हमें उन लोगों से जोड़े रखने में सहायक होता है, जो हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं या जिन्हें हम प्यार करते हैं. डर, हमें ख़तरों से बचाता है और सुरक्षित रहने के नए-नए तरीक़ों का आविष्कार करने के लिए प्रेरित करता है.
ज़रा सोचकर देखिए, बिना किसी डर के, क्या आप आज यहां होते, जहां हैं? अगर डर नहीं होता तो आप ग़ैरज़रूरी ख़तरों से खेल रहे होते, जिससे आपको नुक़सान ही होता. कहने का मतलब है कि नकारात्मक भावनाएं हमें भले ही अप्रिय हों, पर जीवन में उनके महत्व को हम नकार नहीं सकते.
स्ट्रेस तो सकारात्मक भावनाएं भी दे सकती हैं, फिर दोष केवल नकारात्मक भावनाओं को ही क्यों?
लोग नकारात्मक भावनाओं को अक्सर स्ट्रेस से जोड़कर देखते हैं. हमें सिखाया जाता है कि डर, ग़ुस्सा, घृणा, उदासी, क्रोध, अकेलापन, चिढ़ आदि से अंतत: हम परेशान और तनावग्रस्त होते हैं. क्या यह सच है कि एक व्यक्ति केवल नकारात्मक स्थितियों में तनाव महसूस करेगा? बिल्कुल नहीं, भले ही आप तनाव को एक नकारात्मक भावना या स्थिति की प्रतिक्रिया मानकर चलते हैं, यह वास्तव में लोगों के लिए तटस्थ चीज़ है. अक्सर सकारात्मक स्थितियों में भी हम तनाव का अनुभव करते हैं, जो कि एक सामान्य बात है.
अगर आप ग़ौर से देखेंगे तो पाएंगे कि आमतौर पर सकारात्मक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करनेवाले कई अनुभव हमारे जीवन को तनाव से भर देते हैं. उदाहरण के लिए, आपकी शादी होने वाली है, जो कि ख़ुशी की बात है. ख़ुशी एक सकारात्मक भावना है. पर आप भावी ज़िंदगी को लेकर तनावग्रस्त रहते हैं. आप अनजानी जगह पर परिवार के साथ छुट्टियां मनाने जा रहे हैं. आप रोमांचित हैं. अच्छा महसूस कर रहे हैं, पर अंदर ही अंदर तनावग्रस्त भी हैं कि चीज़ें सही तरह से होंगी या नहीं. आप जल्द ही मां या पिता बनने जा रहे हैं. इस ख़ुशी में भी तनाव देखने मिल जाएगा. आपको आपकी ड्रीम जॉब मिल गई है, जो कि बहुत ही ख़ुशी की बात है, पर उसे जॉब के साथ मिली ज़िम्मेदारियां और उन ज़िम्मेदारियों पर खरा उतरने का दबाव आपको तनावग्रस्त कर देता है.
ऊपर बताई गई सभी स्थितियों में तनाव महसूस करना पूरी तरह से स्वाभाविक है, भले ही आप शायद उन्हें ख़ुशी और सकारात्मक भावनाओं के रूप में वर्गीकृत करें. तो अगर आपने कहीं यह पढ़ लिया है कि हमें हमेशा सकारात्मक रहना है, क्योंकि इससे ज़िंदगी स्ट्रेस फ्री हो जाती है तो यह सही नहीं है. ज़िंदगी तभी सही चलेगी, जब उसमें सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं के बीच एक सही संतुलन होगा.
इस लेख का उद्देश्य सकारात्मक भावनाओं की बुराई करना क़तई नहीं है
अब जबकि हम इस लेख के आख़िरी हिस्से में पहुंच गए हैं तो आप यह सोच सकते हैं कि जिंदगी में पॉज़िटिविटी के महत्व या पॉज़िटिव इमोशन की अहमियत को ज़रूरत से ज़्यादा यानी बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है. नहीं, हम बात दोनों में संतुलन की, दोनों की अनिवार्यता की कर रहे थे.
यहां बात पॉज़िटिव बनाम नेगेटिव इमोशंस की नहीं हो रही है. हम दोबारा कहते हैं, एक स्वस्थ जीवन के लिए दोनों तरह की भावनाओं की ज़रूरत है. इसे समझने के लिए आइए एक नज़र डालते हैं कि दोनों तरह की भावनाएं हमें कैसे प्रभावित करती हैं. वे मस्तिष्क को कैसे प्रभावित करती हैं? मस्तिष्क के लिए सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन वे आम तौर पर अलग भूमिकाएं होती हैं. उदाहरण के लिए, नकारात्मक भावनाएं हमें ख़तरों से लड़ने के लिए तैयार करती हैं. तो सकारात्मक भावनाएं हमारी रचनात्मकता को व्यापक बनाती हैं. हमारे जीवन को अगले स्तर पर ले जाती हैं. सबसे अहम् बात, हमारे अंदर उन सभी गुणों को पोषित करती हैं, जो हमें बाक़ी जीवों से अलग बनाता है. यानी प्रेम, दया जैसी चीज़ें, जिन्हें हम इंसानियत कहते हैं, हमारे अंदर वह विकसित करने में हमारे पॉज़िटिव इमोशन्स का हाथ है.
कहने का अर्थ है हमारे मस्तिष्क में पॉज़िटिव और नेगेटिव दोनों इमोशन्स की प्रभावशाली भूमिकाएं हैं, और ये भूमिकाएं प्रतिस्पर्धात्मक होने के बजाय एक-दूसरे की पूरक (कॉम्पिलमेंट्री) हैं. तो उन सभी भावनाओं को खुले दिल से अपनाएं, जो हमें बाक़ी जीवों से अलग बनाती हैं, हमें संभवत: प्रकृति की सबसे सुंदर रचना यानी इंसान बनाती हैं.
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